संजय दुबे
कोई व्यक्ति हमारे ही आसपास के कुछ चरित्रो को उठा कर एक ऐसा ताना बाना बुन दे कि लगे कि ऐसी घटना संभावित है और हो सकती है तो उस व्यक्ति के कथानक बुनाई की दाद तो देनी चाहिए।
एक व्यक्ति के अनेक चेहरे होते है और हम उस व्यक्ति के किस चेहरे को देख पाते है, ये हम पर निर्भर करता है।आपको “लगान” फिल्म की सहायक निर्देशक किरण राव, याद है?आगे चलकर यही किरण राव फिल्म प्रोड्यूसर बनी और डायरेक्टर भी। पिछले सोलह साल से किरण राव ने सात फिल्मे प्रोड्यूस की। उनकी इन फिल्मों से एक बात समझ में आती है कि उन्होंने अपनी फिल्मों के निर्माण को मसाला फिल्मों की श्रेणी से पृथक ही रखा। मुद्दों पर आधारित फिल्मे बनाना व्यवसाय नही होता बल्कि जोखिम होता है। किरण राव ने पीपली लाइव से फिल्म प्रोडक्शन का काम शुरू किया। इसके बाद आमिर खान को लेकर धोबी घाट,तलाश, दंगल,सिक्रेट स्टार और लाल सिंह चड्डा प्रोड्यूस की। इन फिल्मों के देख कर ये अहसास तो होता है कि किरण राव मसाला फिल्मों के बजाय ऑफ बीट विषयो पर ज्यादा मेहनत करने का विकल्प खुला रखती है।
ऐसी ही अवधारण के आगे के घटना क्रम में किरण राव ने एक फिल्म डायरेक्ट की है – “लापता लेडीज” इस फिल्म को थियेटर में चलते पचास दिन पूरे हो गए है और चार करोड़ में बनी फिल्म दो सौ प्रतिशत याने बारह करोड़ रुपए कमा चुकी है। ये मानना होगा कि बिना बड़े स्टार कास्ट के अगर कोई फिल्म लोगो को भा रही है तो उसमे कोई न कोई खूबी जरूर होगी।
मैने काफी दिनों से अनेक लोगो से “लापता लेडीज” की तारीफ सुनी थी। थियेटर जा कर फिल्म देखना थोड़ा सा दुरूह कार्य हो चला है बावजूद इसके साहस जुटाया और “लापता लेडीज “देख ही लिया।
रविंद्र नाथ टैगोर की “नौका डूबी” कथानक पर 1946से फिल्मे बनती आ रहीं है। अब तक छः फिल्मे बन चुकी थी। दिलीप कुमार की फिल्म “मिलन” पहली फिल्म और दूसरी फिल्म”घूंघट”थी और अब लापता लेडीज सातवी फिल्म है।
एक रोचक कथानक को जब फिल्मों के फ्रेम में ढाला जाता है तो वर्तमान समय के आधार पर नवीनता अनिवार्य होती है। लापता लेडीज के कथानक में नवीनता है और सबसे बेहतर बात जो है वह है महिला सशक्तिकरण के लिए अभिनव प्रयास। इस कारण लापता लेडीज की नायिका एक नही है बल्कि तीन नायिका है। नायक भी एक नही है बल्कि दो है।
लापता लेडिस की फूल कुमारी( नितांशी गोयल) पुष्पा कुमारी/श्रेया( प्रतिभा जांता ) मंजू माई(छाया कदम) ने अपने उत्कृष्ट अभिनय से दर्शकों का दिल जीता है, वाहवाही लूटी है। तीनों अभिनेत्रियों में प्रतिभा जांता ने अपने क्रम को एक नंबर पर रखा है। उनके चेहरे के साथ सम्पूर्ण देह यष्टि ने अभिनय किया है। ग्रामीण परिवेश की एक लड़की की शिक्षा के प्रति उत्कट अभिलाषा और उसे पूरा करने के लिए उठाया जाने वाला जोखिम को अभिनय में ढालना कठिन था लेकिन पुष्पा कुमारी के चरित्र में दर्शको को प्रतिभा, की प्रतिभा का कायल होना
पड़ा है,ये मेरा दावा है।
रेलवे स्टेशन में एक गुमटी चलाने वाली मंजू माई की भूमिका में छाया कदम ने भाव अभिव्यक्ति में बाजी मारी है। फूल कुमारी बनी नितांशी गोयल के पास सीमित भूमिका थी जिसमे उन्होंने पूरा न्याय किया है।
नायक के रूप में देखे तो पहले नायक तो रवि किशन ही रहे। एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी के रूप में रवि किशन का चयन सार्थक रहा। फिल्म के क्लाइमेक्स में एक बुरे व्यक्ति के भीतर का बेहतर इंसान के रूप में बदलने का अभिनय और फिल्मांकन दोनो ही मर्म स्पर्शी रहा।
अनेक स्थानों में मानवीय संवेदना के प्रकटीकरण ने दर्शको के गले रूंधवाने और आंखो को भिगाने में सफल रही। कोई फिल्म आपको बांधे रखे वो भी बिना ताम झाम के तो श्रेय कलाकारो को तो जाता ही है , डायरेक्टर को भी जाता है जो अपना काम दूसरो से निकलवा लेता है। शाबाश किरण राव, बधाई