संजय दुबे
दुनियां में बहुत सारी बातो को याद दिलाने के लिए दिवस विशेष इजाद किया गया है ठीक वैसे ही जैसे किसी व्यक्ति का जन्मदिन होता है। बहुत से लोगो को आपत्ति होती हैं कि साल भर जो बाते होती रहती है उनको दिन विशेष तक सीमित करने का क्या औचित्य? मेरी भी सोच पहले ऐसे ही नकारात्मकता से भरी हुई थी लेकिन मैंने महसूस किया कि दिन विशेष होने से उसके आने के पहले और बाद में एक माहौल बनता है। आज का दिन विश्व में खुशी का दिवस है। दुनियां भर मे आंकलन होता है कि किस देश,राज्य,शहर का व्यक्ति सबसे अधिक खुश है। हम इस आंकलन में शामिल नहीं है लेकिन हमारी खुशी का आंकलन हमे करना चाहिए,करना आना चाहिए।
1964के साल में एक फिल्म आई थी। राजश्री प्रोडक्शन की ये फिल्म थी -दोस्ती। एक विकलांग और एक दृष्टिहीन किशोरों की कहानी थी। इस फिल्म को 6फिल्मफेयर अवार्ड्स मिले थे। इस फिल्म में एक अवसादिक गाना भी था राही मनवा “दुख” की चिंता क्यों सताती है,”दुख” तो अपना साथी है
“सुख” है इक शाम ढलती आती है जाती है,”दुख” तो अपना साथी है
इस गाने को दुख से सुख की तरफ ले जाने के लिए केवल दोनो के स्थान बदल देते है और देखते है गाना कैसा बनता है
राही मनवा “सुख”की चिंता क्यों सताती है “सुख” तो अपना साथी है,”दुख”है इक शाम ढलती आती है जाती है “सुख”तो अपना साथी है।
दरअसल हमारी पहले की पीढ़ियां अभाव में जीने की आदी रही।आजादी के अभाव में गुलामी ने हमारे सोच को भी जंजीरों में जकड़ कर सुख की अनुभूति से ही वंचित कर दिया था। मुस्कुराना हंसना मानो सबसे कठिन बात थी। उन्मुक्त हंसी तो डोडो जैसे विलुप्त था। इक्कीसवीं सदी ने हमारी सोच में अभूतपूर्व बदलाव किया। हमनें अवसाद की जिंदगी को बाय बाय कहना सीखा। घर से बाहर निकले भले ही चाट की दुकान पर थोड़े से गोल गप्पे खाए ,बगीचे में गए, पिकनिक मनाए, पर्यटन पर गए लेकिन अवसर बनाने लगे। हमे खुशी खोजने के बजाय मिलने लगी। यही जीवन का सोच है कि हमे सुख के अवसर खोजने का आदी होना पड़ेगा। हम दुखों से भले ही दो चार हाथ की लेकिन सुख को जेब में रखे। आप दूसरो को सुख देने के अवसर भले खोजे लेकिन अपनी मुस्कुराहट और हंसी के लिए खट्ट कंजूस न रहे। यही आज खुशी के दिवस का सुखद संदेश है।