गुल ए “गुलजार” तू नजर आता है

मनोरंजन

 

संजय दुबे 

कल फिल्मों से जुड़े लोगो का दिन ज्यादा यादगार दिन रहा। फिल्म निर्माता, निर्देशक,पटकथा संवाद लेखक, गीतकार गुलजार को साहित्य का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। ज्ञानपीठ पुरस्कार किसी व्यक्ति को उसके साहित्य के क्षेत्र में निरंतरता के साथ उत्कृष्ट किसी भी भाषा में लेखन के लिए दिया जाता है।
याद नहीं आता कि गीत संगीत के प्रति रुझान मुझे कब हुआ । लाखो गाने सुने, याद भी है ,जब भी वे कही गाए या सुने जाते है तो बरबस कुछ गीतों के साथ गुनगुनाहट होने लगती है। शब्दो से जब इश्क होने लगा था तो मन आवारगी के साथ लाखो शब्दो से इश्क कर बैठा। आज भी जब कोई इश्किया शब्द गुंजित होता है तो दिल फिर जवां होता है और फिर से इश्क करने की चाहत बढ़ जाती है।
शब्दो के अनेक जादूगर अपने जादू हम पर चला कर वशीभूत करने का क्रम जारी रखे है। कहा जाता है कि शब्द तब तक बेजान होते है जब तक कानों में नहीं पड़ते है। उनमें जान डालने के लिए गीत इजाद हुए। स्वर लहरियो ने उनमें आत्मा घोल दी और फिर दिल ढूंढते रहा फुरसत के रात दिन इन गानों को सुनने के लिए।
हमारी जिंदगी में फिल्मी गानों और गैर फिल्मी कविताओं,शेर,शायरियों ने जबरदस्त प्रभाव डाल रखा है। ऐसा कोई दिन नहीं जाता होगा जब दूर पास से कोई गाना अनायास टकराता न हो। शब्दो से इश्क का अंजाम ये होता है कि शब्दो के चयनकर्ता के प्रति मन में उत्सुकता होती है कि कौन है वो बाजीगर जो हमे अपनी ओर खींच लेता है। अधिकांश श्रोता गीत संगीत सुन संतुष्ट हो जाते है लेकिन कुछ लोग गीतकार को ढूंढते है, उनमें से एक मैं भी हूं। मैं इस पीछे के कलमकार को अक्सर खोजता हूं क्योंकि किसी गाने की प्रसव पीड़ा को भोगने और जन्म देने के बोध से यही व्यक्ति न जाने कितने दिन रात उधेड़बुन में काटता है। मुखड़ा बनाना फिर अंतरे के निर्माण का ये शिल्पकार कितने शब्दो के चयन की प्रक्रिया से गुजरता है। इनके कच्चे माल पर जब संगीत और मधुर आवाज की परत चढ़ती है तो शब्दो को निखार मिलता है। दुख की बात तो ये भी है कि कलम का ये सिपाही ज्यादातर समय अज्ञात ही होते है।
इतना लिखने का मतलब ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित गीतकार गुलजार साहब के बारे में अपने मनो मस्तिष्क में सालो से जमे सम्मान को बाहर निकालना है।
मुझे गुलजार साहब को देखने और सुनने की इच्छा सालो से रही। पिछले साल जयपुर में ये सौभाग्य मिला और लगभग सत्तर मिनट कैसे निकल गए पता ही नहीं चला। सफेद पायजामा कुर्ता के लिबास में सफेदी लिए आवरण में एक आवाज जो जिन शब्दों को उच्चारित कर रहे थे लग रहा था उनमें जान आ रही है। जिंदगी की एक बहु प्रतीक्षित मनोकामना को पूर्ण होते देखना कितना हसीन होता है।
ज्ञान के पीठ पर गुलजार साहब पहले से ही आसीन हो चले थे जब उन्होंने संपूर्णता के साथ “मोरा गोरा अंग लईयले मुझे श्याम रंग दई दे” गीत लिख कर शुरुवात की थी। “बंदिनी”फिल्म के साथ गुलजार की शुरुवात हुई । 90साल की उम्र में से इकसठ साल से उनकी कलम शब्दो का विन्यास कर गाने पर गानों को जन्म दे रही है। उनके शेर,शायरी के मायने भी जुदा है। हिंदी,उर्दू के साथ स्थानीय बोली भाषा पर गुलजार साहब का अधिकार इतना है कि वे जिन शब्दों को अपने लफ्जों से कह दे तो वे शब्द अमर हो जाते है। उन्हे त्रिवेणी छंद का सृजक माना जाता है।
उनके लिखे गानों की संख्या अनगिनत है लेकिन जिन गानों के चलते गुलजार साहब की साहित्यिक कल्पनाशीलता चरम पर जाती हैं उन्हें सुने तो लगता है कि शब्द कोष में इन शब्दो का चयन हुआ तो कैसे? आप आनंद, खामोशी,
मौसम,आंधी,किनारा,परिचय, घर, लेकिन,माचिस, सत्या, इजाजत,ओमकारा, रूदाली के गानों को सुन कर महसूस कर सकते है कि शब्दो के गुलजार से गुलजार साहब के शब्द चयन का स्तर कितना ऊंचा है।
खुद की खरखरी आवाज को उन्होंने जगजीत सिंह और भूपेंदर में महसूस किया। जगजीत सिंह से मिर्जा गालिब धारावाहिक के शेर शायरी की बंदगी करवाई। आप आज भी सुने कि “हर एक बात पे कहता है कि तू क्या है”, मन तर हो जायेगा।भूपेंदर से घरौंदा में ” एक अकेला इस शहर में रात में और दोपहर में” गवाया तो लगा गुलजार साहब अपने साथ लाखो व्यक्तियों से ढूंढवा रहे है।
मौसम फिल्म का एक गीत “दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन”हर व्यक्ति का गीत है। कल गुलजार साहब ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुए तो लगा कि शब्दो के हुनर को ऐसा ही सही सम्मान मिलना चाहिए। गुलजार को उर्दू भाषा की सेवा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। उनसे पहले उर्दू के प्रख्यात व्यक्तित्व फिराक गोरखपुरी, कुर्तुलेंन हैदर,अली सरदार जाफरी, अखलाक मोहम्मद खान”शहरयार”को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है। 1955से शुरू हुए इस प्रतिष्ठित पुरस्कार का ये 58वा अवसर है। ये भी जान ले कि गुलजार उनका उपनाम है असली नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा है।

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